हिंदी-पट्टी के 3 राज्यों में भाजपा की एकमुश्त हार के 'निहितार्थ'
छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश, मिजोरम और तेलंगाना के हालिया विधानसभा चुनाव परिणाम आ चुके हैं. देश का प्रत्येक नागरिक इससे अवगत हो चुका होगा.
2014 के बाद से ही लगातार 'मोदी लहर' पर सवार भारतीय जनता पार्टी एक तरह से अजेय दिख रही थी, किंतु 2018 खत्म होते-होते उसके 'अश्वमेघ यज्ञ' में विघ्न पड़ गया है.
सवाल उठता है कि क्या भाजपा का वक्त बीत गया है?
वैसे भी कहा जाता है कि कांग्रेस पार्टी का "दौर" होता है जबकि भाजपा का "वक्त" होता है... जिसके बीतने की आशंका व्यक्त की जा रही है!
जरा शब्दों पर गौर कीजिए... कांग्रेस का दौर और भाजपा का वक्त!
वास्तव में कांग्रेस आजादी के बाद से ही एक लंबे समय तक शासन में रही है, जबकि भाजपा बड़ी और प्रचंड लहर के बावजूद एक बार अटल बिहारी बाजपेयी के शासन काल में 'गठबंधन' से चली और दुबारा नरेंद्र मोदी के 'युग' में 5 साल शासन पूरा करती दिख रही है. बाजपेयी के 5 साल के शासन काल से देश की जनता एक तरह से ऊब ही चुकी थी, क्योंकि उसके बाद 10 साल तक वह सत्ता से बाहर रही.
खुदा ना खास्ता 2019 में भी अगर भाजपा बहुमत से पीछे रह गई तो कहीं ना कहीं 'वक्त और दौर' वाली उक्ति सही ही बैठेगी.
खैर भाजपा क्यों हार गई... उसने क्या किया क्या नहीं किया इस पर हर एंगल से हम सब ने तमाम रिपोर्ट्स देखी होंगी, एनालिसिस भी की होगी, मंथन किया होगा, किंतु यहाँ कही जाने वाली बातें कुछ 'भूत और भविष्य' के तारों को जोड़ने वाली कड़ियाँ हैं.
जरा याद कीजिए 2014 का वह दौर जब भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के नकारात्मक रवैया के बावजूद 'भाजपा कार्यकर्ताओं के दबाव' की वजह से पार्टी को यह फैसला लेना पड़ा कि नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनेंगे!
Pic: IndianExpress |
बहरहाल यह कहानी का दूसरा हिस्सा है जिसकी डोर 'भविष्य' में है, लेकिन इससे पहले हमें 'भूत' की तरफ जाना चाहिए!
2014 में नरेंद्र मोदी संसदीय दल के नेता चुने जाने के पश्चात संसद के सेंट्रल हॉल पहुंचते हैं और वहां तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह सभा की अध्यक्षता कर रहे होते हैं. नरेंद्र मोदी से पहले लालकृष्ण आडवाणी अपने वक्तव्य यह कहते हैं कि 'नरेंद्र मोदी भाई ने कृपा की जिसकी वजह से आज पार्टी पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ सकी है.'
नरेंद्र मोदी लाल कृष्ण आडवाणी की 'कृपा' वाली बात को पकड़ लेते हैं और अपने भाषण की शुरुआत में ही यह कहते हुए माहौल भावुक कर देते हैं कि आडवाणी जी ने जिस 'कृपा' शब्द का प्रयोग किया वह दोबारा प्रयोग न करें.
मोदीजी का तात्पर्य रहता है कि भाजपा उनकी मां है और क्या मां की सेवा करना कृपा होती है?
वह तो प्रत्येक बेटे का कर्तव्य होता है!
इस भाव और भाषण के साथ मोदी जी की आंखों में आंसू आने की चर्चा हर जगह होती है. बेहद विनम्र और दूरदर्शी भाषण लगा था वह! यूट्यूब पर वह भाषण आज भी मौजूद है, जिसे राजनीति में रुचि रखने वालों को 'दोबारा' सुनना चाहिए.
न केवल सुनना चाहिए, बल्कि उस भाषण में भाजपा और आडवाणी जी के प्रति सम्मान में और वर्तमान में नरेंद्र मोदी के किसी भाषण का अंश और आडवाणी जी के प्रति सम्मान की कोई क्लिप निकालकर तुलना भी करनी चाहिए.
तब नरेंद्र मोदी ने खुलकर कहा था कि वह खुद की मेहनत से ही प्रधानमंत्री नहीं बने, बल्कि लाखों-करोड़ों कार्यकर्ताओं के खून पसीने और ना केवल वर्तमान कार्यकर्ताओं बल्कि पिछले कई दशकों के कार्यकर्ताओं के त्याग और कश्मीर से कन्याकुमारी तक किए गए उनके पुरुषार्थ की वजह से आज वह प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे हैं.
कहना अनुचित ना होगा कि 1925 के बाद से ही आरएसएस की स्थापना और उस पर विभिन्न कालखंडों में लग रहे प्रतिबंधों से लड़ते हुए भारतीय जनसंघ की स्थापना और उसके बाद भारतीय जनता पार्टी की स्थापना और अद्वितीय संघर्ष के बाद 'मोदी युग' का अवसर आ सका था. भारतीय जनता पार्टी और उससे भी बढ़कर नरेंद्र मोदी के पास यह अवसर था कि वह देश को सकारात्मकता की दिशा में कुछ कदम आगे बढ़ा पाती...
पर क्या वाकई ऐसा हुआ?
आप नरेंद्र मोदी के साढे 4 साल के कार्यकाल का आंकलन कर लीजिए और किसी एक पैमाने पर आप कह दीजिए कि यह सरकार कुछ बड़ा परिवर्तन लाने में सफल हुई है... ईमानदारी से!
हालांकि कहने वाले कह सकते हैं कि यह सरकार भ्रष्टाचार से मुक्त रही है, विदेशों में छवि बनी है... किंतु क्या यह वाकई वही परिणाम हैं, जिसके लिए दशकों का त्याग आरएसएस और भाजपा के कार्यकर्ताओं ने किया था?
क्या वाकई यह वही परिणाम हैं जिसकी वजह से 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भारतीय जनता पार्टी को हिंदी पट्टी के 3 बड़े राज्यों में हार का सामना करना पड़ा है?
लाख कोई कहे कि स्थानीय मुद्दों पर विधानसभा चुनाव हुए हैं, किन्तु सच तो यह है कि नगर-निगम तक के चुनाव 'मोदी' के नाम पर लड़े जा रहे हैं. यह बिल्कुल स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में हार की अधिकाधिक जिम्मेदारी मोदी और टीम की ही है.
बहरहाल, इन विधानसभा चुनावों की हार को अगर छोड़ भी दें तो क्या वाकई नरेंद्र मोदी के साढे 4 साल के शासन काल के दौरान भाजपा और संघ की जड़ें समाज में मजबूत हुई हैं?
क्या उन्हें पैर जमाने में मदद मिली है?
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बात साफ है कि जिस प्रकार एक के बाद दूसरी जीत का श्रेय खुद मोदी जी और उनके साथ लगे अमित शाह ने लेने की कोशिश की... भाजपा कार्यकर्ताओं के योगदान को भुलाया... भाजपा और संघ के दशकों के त्याग को भुलाने की कोशिश की, अनदेखा करने की कोशिश की... आडवाणी समेत सुषमा और दूसरे वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी करने की कोशिश की उसने कहीं ना कहीं भाजपा की जड़ों को कमजोर ही किया है.
2019 के लोकसभा चुनाव में यह अंदाजा लगा पाना मुश्किल नहीं है कि पिछली बार की तुलना में इस बार हिंदी पट्टी विपरीत रूख दिखला सकती है. 2014 में उत्तर प्रदेश से एक बड़े बड़ी संख्या में सीटें पाने में भाजपा को सफलता मिली थी और अगले साल अगर सपा-बसपा गठबंधन में किसी प्रकार की रुकावट नहीं आई, तो निश्चित तौर पर पिछली 2014 की तुलना में आधी सीटें हासिल करने में भी भाजपा को पसीने आ जाएंगे. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हालिया विधानसभा चुनाव परिणाम कांग्रेस के पक्ष में आ जाने से कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार होगा और लोकसभा चुनाव के पहले कांग्रेस की राज्य सरकारें जिस प्रकार लोकलुभावन फैसले लेंगे उससे कहा जा सकता है कि लोकसभा चुनाव परिणाम मोदी लहर की तरह उत्साहजनक तो नहीं ही होंगे!
दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य को छोड़ दें तो किसी राज्य में भाजपा की उपस्थिति तक नहीं है, जनाधार की बात तो दूर है. यहां तक कि गुजरात में भी पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस टक्कर देने में सफल रही थी. जाहिर है भाजपा के सामने खतरे की घंटी है!
ऐसा नहीं है कि भाजपा 'अप्रासंगिक' हो जाएगी, किन्तु उसका 'विश्वगुरु' का सपना अवश्य अप्रासंगिक हो जायेगा, इस बात में दो राय नहीं!
क्या वाकई 'मोदी-युग' जैसा वक्त भाजपा को फिर मिल सकेगा?
मोदी लहर कोई साधारण लहर नहीं थी, बल्कि सदियों में इस प्रकार की राजनीतिक लहरें कभी-कभार ही पैदा होती हैं. तमाम चीजें सटीक बैठी थीं, मसलन कांग्रेस की विफलता, कांग्रेस का मुस्लिम तुष्टीकरण, मोदी की विकास सहित हिन्दू हृदय सम्राट की छवि, संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं का उत्साह और एकजुटता... और भी कई इंग्रेडिएंट्स!
समझना दिलचस्प होगा कि 1992 और उससे पहले से चल रहे 'राम-मंदिर' मुद्दे को राजनीतिक रूप से इस्तेमाल करने की ज़रुरत क्यों पड़ रही है... 2018 में?
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सोचिये, आप भी और इन 'आंकलनों' को 1925 से 2019 तक खींचिए, तब आप हिंदी-पट्टी 3 राज्यों में भाजपा की एकमुश्त हार का 'निहितार्थ' समझ सकेंगे!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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