Buxar Top News: SC, ST एक्ट पर माननीय सुप्रीम कोर्ट का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण - रामनारायण
सोशल मिडिया के इस युग में बाते एक लाइन वाले उत्साह, क्रोध, ख़ुशी जैसे लाइनों में सिमट गई है, बहस की कोई गुंजाइस ही नहीं बची, धारा के विपरीत कुछ कहो तो अपशब्दों की बारिश हो जाती है.
बक्सर टॉप न्यूज़, बक्सर: "... हो हल्ला सुन रहा था, पर पढ़ने पर पता चला की SC, ST एक्ट पर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने एक सुनवाई के दौरान जो फैसला दिया है वह दुर्भाग्यपूर्ण प्रतीत हो रहा है, तथा दलित अधिकार के लिए काम करने वाले संगठनो को इसे गम्भीरता से लेना चाहिए सोशल मिडिया के इस युग में बाते एक लाइन वाले उत्साह, क्रोध, ख़ुशी जैसे लाइनों में सिमट गई है, बहस की कोई गुंजाइस ही नहीं बची, धारा के विपरीत कुछ कहो तो अपशब्दों की बारिश हो जाती है, अब ध्यान मुद्दे से भटक कर उन कॉमेंट के दो लाइनों में चला जाता है, फिर भी प्रयास करूँगा की विषय की रोचकता बरक़रार रखूं, अधिवक्ता हूँ लॉ स्कूल ने पाठ्यक्रम में एक विषय जुरिस्प्रूडेंस (विधि का स्त्रोत) रखा था, सो कानून के निर्माण की प्रक्रिया और उसकी जरुरत थोड़ी बहुत समझ में आती है, पर ये भी दावा नहीं करता की पारंगत हूँ, सम्मानित सीनियर्स से मार्गदर्शन आपेक्षित है.किसी कानून की आवश्यकता क्यों होती है, जब इस सवाल के हम एक बार अपने जेहन में घुमायेंगे तो पाएंगे, की जब कुछ कर्मो, कुकर्मो से अन्याय अव्यवस्था की स्थिति पैदा हो जाये तो पकडे गए लोगों को एक सजा दी जाये ताकि आगे अन्य लोग उस कर्म को करने से डरें, जो अन्याय का प्रतीक बन गयी हो, शायद इसीलिए जब एक सामान्य व्यक्ति किसी अन्य की हत्या करता है तो उसे मृत्युदंड, और एक सैनिक द्वारा की गयी हत्या के बदले ब्रेवरी अवार्ड से नवाजा जाता है, ताकि सिविलियन में एक सन्देश जाता है, की हत्या करना दंडनीय अपराध है, और बहुतायत मामले इसी डर से रुक जाएँ.
पता नहीं ये उदाहारण कुछ साबित कर पा रहा है या नहीं, पर ये बात सौ टका सत्य है की हमारे संस्कृति के मूल में दलित उत्पीड़न बसा हुआ है, वरना ये कथन बार बार हमारे कानो से नहीं टकराता की "ढोल, गवार, शुद्र, पशु, नारी ये सब ताड़न के अधिकारी" । हमारी सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मणों को ज्ञान, क्षत्रियों को बाहुबल, बनियों को धन का ठीकेदार बनाया गया और शुद्रों को सेवा के लिए छोड़ दिया गया, मने जिसके पास जो हो सुविधा हो (ज्ञान, बाहुबल, धन) उसका उपयोग, दुरूपयोग कर उनकी सेवा की सुविधा प्राप्त करे, और दलितों के पास कोई चारा नहीं सेवा के अलावा जो कालान्तर में शोषण के नाम से परिभाषित हुआ. अब जब देश आज़ाद हुआ उसने अपना गणतंत्र घोषित कर विधि के शासन के जरिये समानता स्थापित करने का संकल्प लिया, तब जिम्मेदारी बढ़ गयी की इस असमानता आधारित वैदिक व्यवस्था को ध्वस्त कर संविधान आधारित समानता के संकल्प को बाई हुक और बाई क्रुक लागू किया जाये. हमारे देश की लगभग 83 प्रतिशत आबादी हिन्दू है, जो चाहे अनचाहे उस वैदिक व्यवस्था की ट्रेनिंग बचपन से प्राप्त कर लेती जो सिखाती है की कुटिलता (अब इसे अन्यथा नहीं लेंगे ज्ञान के दुरूपयोग का इससे बेहतर पर्यायवाची मुझे नहीं मिला, कोई हो तो सुझाइयेगा) पर ब्राह्मणों का हक़, दबंगई पर क्षत्रियों का हक़, धनबल पर बनियो का हक़ और बेचारे सिर्फ शूद्र है, अब जिस विधि चाहे उन पर शासन चलाना अन्य सभी वर्गों का हक़ हैं अगर विरोध किया तो उत्पीड़न सहना उनकी नियति,जन्म आधारित वर्गीकरण से उपजे इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था से निपटना बहुत बड़ी चुनौती थी. अब अगर ये समस्या इतनी गंभीर नहीं होती तो जाने माने कानूनविद हमारे संविधान निर्माता के नाम से विख्यात अपने कर्मो से तत्कालिन शासन व्यवस्था में प्रथम कतार में शामिल डॉo बीoआरo अंबेडकर को यह दुर्भाग्यपूर्ण बयान नहीं देना पड़ता की "जन्मा तो हिन्दू हूँ पर मरूँगा नहीं" और बाद में बौद्ध धर्म अपना भी लिया.
जब भी वाद विवाद का जन्म होता है तो दोनों पक्षों ये विश्वास रहता है की झगड़ा बढ़ा तो ब्राह्मणों, क्षत्रियों, बनियों की ओर से क्रमशः , नरक अथवा ब्रह्मपुजा, बाहुबल, और धनबल से टकराव होगा पर यदि सामने का पक्ष दलित हो तो ये तीनो ही चीजे नदारद मिलेंगी, ऐसे में समानता स्थापित करने को ये कानून काफी कारगर साबित हो रहे थे, अच्छे अच्छे दबंगो में मैंने इस कानून की प्रत्यक्ष दहशत देखी है, और जब माननीय न्यायालय द्वारा इसे कमजोर करने का कार्य किया गया तो एक अजीब सी ख़ुशी भी महसूस की. हो सकता है की इक्का दुक्का इस कानून का दुरूपयोग हुआ भी हो और उन्ही का हवाला लेकर और उनके शानदार प्रस्तुतीकरण से प्रभावित होकर न्यायालय ने ये फैसला सुनाया हो, पर याद रखने की जरुरत है की इससे समानता के अपने लक्ष्य में हम कोसो पीछे चले गए हैं. साधनहीन दलित वर्गों लिए उनकी लड़ाई जो वो कानून के दायरे में लड़ना चाहते थे हमने और कठिन कर दी है. प्रीति यूँ ही नहीं आती और शायद ये उक्ति इस कानून के बचाव में फिट बैठेगी, की "भय बिनु प्रीत न होय गोपाला" और शायद जहाँ तक मेरी जानकारी है ये उक्ति किसी दलित विचारक ने पक्का नहीं लिखी है.
स्वर्ग नरक के डर से, रंगबाजी के डर से , या धन के लोभ लालच और डर से हम नित्य कितने ही समझौते दूसरे शब्दों में अत्याचार सहन करते है पर अगर इस कानून का कही एक भी दुरुपयोग का हमें भ्रम मिला तो तुरंत दलितों के द्वारा अत्याचार की संज्ञा दे दी हमने और एक मात्र संवैधानिक हथियार जो अन्य वर्गों में भले ही थोडा बहुत ही प्रीति के लिए आवश्यक तत्व भय उपलब्ध करा रही थी, छीनने को उतारू हो गए। एक मित्र ने दलित वर्गो के साधनहीनता का बड़ा ही सटीक उदहारण दिया जो जेहन से उतरता ही नहीं "ये सच है की अमीरी गरीबी सभी वर्गों में है सवर्ण गरीब से गरीब दशा में है, और कई दलित करोड़पति, अरबपति भी हैं पर एक भी गांव या बस्ती मैंने ऐसी नहीं देखी जहाँ सिर्फ सवर्ण झोपड़े में अभावग्रस्त जिंदगी जीते हों और दलितों के बंगलो वाली बस्तियां हो, और इसका उलटा तो आपको यत्र तत्र सर्वत्र मिल जायेगा.
ज्यादा लिखूंगा तो बतियाने को कुछ बचेगा नहीं, विद्वजनों की राय आमंत्रित है, बातें उलझी हुई हैं, तुरंत समझ में ना आये तो दोबारा पढ़ने की कृपा करे, तुरंत कॉमेंट करने से अवार्ड नहीं मिलेगा :)
अगर हमें संविधान आधारित व्यवस्था से जरा भी लगाव है, तो आज ही कदम उठाना होगा, ऐसी हरकतों का माकूल जवाब न्यायलय के स्तर से ही संभव है, हमारी व्यवस्था में हर समस्या का समाधान सड़क ही नहीं है, गुस्सा बचा के रखिये, भड़ास न बनने दीजिये. लड़ाई लंबी है और हम ही जीतेंगे. सौभाग्य से मैं कम से कम इस जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था में किसी दलित परिवार में पैदा नहीं हुआ, पर समानता का अहसास मुझे वैदिक विचार के स्वर्ग के नजदीक प्रतीत होती है, आप भी महसूस कीजिये, अच्छा लगेगा."
आपका
रामनारायण
अधिवक्ता
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