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Buxar Top News: विचार: सिस्टम से किसानों की दूरी बरक़रार, नहीं मिल पा रहे सरकारी लाभ ....


बक्सर टॉपन्यूज़, बक्सर: आरटीआई एक्टिविस्ट ऑर्गनाइजेशॅन के बिहार प्रदेश महासचिव अमित राय ने आजादी के 70 सालों के बीत जाने के बाद भी किसानों की स्थिति में बदलाव न आने पर चिंता जाहिर करते हुए कुछ ऐसे सवाल उठाए हैं जो वाकई सोचने को मजबूर कर देते हैं | उनकी बातों को हम मूल रूप में पाठकों के सामने रखते हुए आशा करते हैं कि आप भी अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराएँगे |
  भारत को आजाद हुए लगभग 70 साल हो चुके हैं और इस दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा में जबरदस्त बदलाव आया है। औद्योगिक विकास ने अर्थव्यवस्था का हुलिया ही बदल दिया है, लेकिन औद्योगिक विकास के बावजूद इन 70 सालों में एक तथ्य जो नहीं बदला है वो ये कि आज भी भारत के 65 से 70 फीसदी लोग रोजी-रोटी के लिए कृषि और कृषि आधारित कामों पर निर्भर हैं। ये एक अजीब विसंगति है कि जनसंख्या का इतना बड़ा हिस्सा कृषि पर निर्भर करता है लेकिन कृषि में विकास की दर औद्योगिक और सेवा क्षेत्र के मुकाबले काफी कम है। कृषि के विकास को प्रभावित कर रहा है उनमे से एक प्रमुख कारण सिंचाई भी है।
किसान भले ही पैदावर बढ़ाने के लिए अच्छे किस्म के बीज प्रयोग करें या आधुनिक तकनीक का सहारा लें अगर फसलों को पानी नहीं मिलेगा, तो फसलें सूखेगीं ही। आज भी बिहार सहित भारत में करीब 40 फीसदी हिस्से असिंचित है। सिंचाई सुविधाओं के अभाव में कई किसानों को मॉनसून पर ही निर्भर रहना पड़ता है।

ये आपके या हमारे लिए कोई नई बात नहीं है, हमसब किसानों के दर्द और तकलीफ को बहुत सालों से उठा रहे हैं और साथ में ये भी सच्चाई है कि उनके लिए घोषणाएं और स्कीमों की कोई कमी नहीं होती है। बजट में भी किसानों के लिए बड़े प्रस्ताव रखे जाते हैं, सरकारें अपनी तरफ से कईबार ये लक्ष्य तय कर चुकी हैं कि किसानों की आमदनी अगले पांच सालों में दोगुनी हो जाएगी। परंतु किसानों के हालात दिनों-दिन बिगड़ते जाते हीं देखा जा जा सकता हैं। इनके सवाल बेहद सीधे और बुनियादी हैं।

पहला सवाल है कि आजादी से लेकर आजतक का वो आकलन कहां है, जो बता सके कि कितने किसान व  खेतिहर किसान मजदूर हैं। कई बार ऐसे किसानों के पास उनके अस्तित्व के दस्तावेज तक नहीं होते और यही वजह है कि सरकार की बढ़िया से बढ़िया स्कीम का फायदा उन तक नहीं पहुंच पाता है, मसलन फसल बीमा या किसानों को मिलने वाला कर्ज। सालों-साल ये किसान खेती करते रह जाते हैं और पैसे के लिए स्थानीय साहूकार के हाथों की कठपुतली बन जाते हैं। जबकि किसी भी गांव का सिस्टम बहुत आसानी से ये बता सकता है कि उस गांव या कस्बे में कितने किसान फसल उगाते हैं, क्या कृषि बीमा योजनाएं या अन्य सरकारी लाभ इन तक पहुंच पाती हैं?

दूसरी बात राज्य सरकार और केंद्र के बीच आज तक कोई ऐसा तरीका नहीं बन पाया है जिससे स्पष्ट हो सके कि किसानों के हक की स्कीमें कब, कैसे और कहां तक उनके पास पहुंची और ये जानकारी सार्वजनिक हो सके। लगभग 2 वर्षों पहले मार्च और अप्रैल के महीने में किसानों की फसलें बारिश न होने से बर्बाद हुई थी, तब पीएम ने डेढ़ गुना मुआवजे का एलान किया था, लेकिन कई जगहों पर किसानों को इसका लाभ प्राप्त नही हुआ तो कुछ जगह महज कुछ रुपये के चेक थमा दिए गए। क्या ये स्थिति बदल पाएगी? क्या किसान ज्यादा पैसे की जरूरत पूरी करके अपनी उपज बढ़ा सकेगा और देनदारी कम कर सकेगा? राज्य व केंद्र सरकार से किसानों के ये कुछ मूल प्रश्न हैं जिनके जवाब मिलने चाहिए।




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