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Buxar Top News: मौखिक भी मांग सकते हैं आरटीआई से सूचना ...




बक्सर टॉप न्यूज़, बक्सर: सूचना का अधिकार अधिनियम एक क्रांतिकारी  अधिनियम है। जिसमे सरकार द्वारा चलाये जा रहे किसी भी योजना या सरकारी किसी भी कार्य के बारे में कोई भी व्यक्ति जानकारी प्राप्त कर सकता है। गत दिनों सरकार ने कहा है कि मौखिक रूप से भी आरटीआई आवेदन किए जा सकते हैं। इस बारे में पहले से ही सूचना का अधिकार अधिनियम में प्रावधान है। कार्मिक राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने राज्यसभा में एक लिखित जवाब में गुरुवार को यह महत्वपूर्ण जानकारी दी थी। आरटीआई एक्टिविस्ट एवं युवा समाजसेवी अमित राय ने बताया कि अधिनियम की धारा 6 (1) के तहत यह भी प्रावधान है कि लिखित की जगह मौखिक रूप से आवेदन करने वाले लोगों की केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी (सीपीआइओ) या राज्य लोक सूचना अधिकारी (एसपीआइओ) हर उचित सहायता करेंगे।
कार्मिक मंत्री से पूछा गया था कि क्या सरकार ने ब्रेल लिपि (नेत्रहीनों के लिखने-पढ़ने की विधि) में आरटीआई आवेदन स्वीकारने और जवाब मुहैया कराने के लिए कोई कदम उठाया है।आरटीआई के लिए काम वाले अमित राय का कहना है कि पारदर्शिता के लिए बनाए गए इस कानून में नागरिकों को मौखिक रूप से आवेदन करने की व्यवस्था है।
हालांकि इस तरह के मामलों के लिए केंद्र और राज्य सरकारों में नोडल विभाग अभी तक नियमों के साथ सामने नहीं आए हैं। मौखिक रूप से आरटीआई आवेदन दाखिल होने के बाद सीपीआइओ या एसपीआइओ के लिए कानूनन यह अनिवार्य हो जाता है कि वे गंभीर रूप से दिव्यांगों को सूचना पाने में सभी तरह की मदद करें।

क्या है आरटीआई

आरटीआई एक्टिविस्ट अमित राय ने बताया कि ये कानून हमारे देश मे 2005 मे लागू हुआ। जिसका उपयोग कर आप सरकार या किसी सरकारी विभाग से सूचना मांग सकते है आम तौर पर लोगो को इतना ही पता होता है। परंतु आज मैं आपको इस के बारे मे कुछ ओर रोचक जानकारी देता हूँ -
आरटीआई से आप सरकार से कोई भी सवाल पूछ सूचना प्राप्त कर सकते है, किसी भी दस्तावेज़ की जांच कर सकते है। आरटीआई से आप दस्तावेज़ या उसकी प्रमाणित कॉपी ले सकते है। इसके अलावा कोई भी नागरिक सरकारी काम काज मे इस्तेमाल सामग्री का नमूना ले सकता है या किसी भी सरकारी कामकाज का निरीक्षण कर सकता है।

अमित राय बताते हैं कि आरटीआई के इस्तेमाल से नागरिकों को जानकारी के आधार पर फ़ैसले करने का मौका मिला। लोकतंत्र की जड़ें और गहरी हुईं। आम जनता ने अपनी सार्वभौमिकता का प्रयोग पांच साल में एक बार वोट डाल कर ही नहीं, बल्कि मनमर्ज़ी की सत्ता पर सवालिया निशाना लगा कर भी किया। इच्छा के मुताबिक सत्ता का इस्तेमाल करने वालों से परेशान लोग अब बात-बात में कहते है, 'आरटीआई लगा देंगे'।
अनुमान है कि हर साल लगभग 50-80 लाख आरटीआई अर्ज़ियां डाली जाती हैं. इससे इस क़ानून की लोकप्रियता साबित होती है।

पारदर्शिता का ख़तरा किसको?

आरटीआई आंदोलन की पहली बैठक
निहित स्वार्थों को पारदर्शिता से कितना ख़तरा है, यह इससे साबित होता है कि आारटीआई का इस्तेमाल करने वाले 45 से ज़्यादा लोगों की हत्या हो चुकी है। भारत में शासन का स्वरूप इससे आंका जाएगा कि आरटीआई के पहले और इसके बाद क्या स्थिति थी। साधारण भारतीयों ने यह अधिकार पाने के लिए वर्षो संघर्ष किया, उनका इसमें कितना योगदान है, यह समझना महत्वपूर्ण है।
सूचना की मांग अपनी सादगी की वजह से बेजोड़ है। सूचना के अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे लोगों ने सबसे पहले 1990 के दशक में राजस्थान में सड़क पर होने वाले ख़र्च का ब्योरा मांगा, उन्होंने अस्पतालों में जीवन रक्षक दवाओं और ग़ायब हो रहे राशन के बारे में भी जवाब मांगा। इससे सत्ता को ज़बरदस्त झटका महसूस हुआ।

पंचायत से संसद तक

युवा समाजसेवी एवं आरटीआई एक्टिविस्ट अमित राय ने कहा कि आरटीआई का असर पंचायत से लेकर संसद तक साबित हो गया। इससे लाल फीताशाही दूर करने और अफसरशाही की टालमटोल के रवैए को दूर करने में मदद मिली।
इसने नीतियां तय करने और उन्हें लागू करने में गहरी पैठ बना चुके निहित स्वार्थो की भूमिका को उजागर कर दिया। इसने बड़े पैमाने पर होने वाले भ्रष्टाचार को चालू रखने में उनकी कोशिशों को भी कमज़ोर कर दिया। आरटीआई आंदोलन ने एक प्रभावी और लोकप्रिय बहस छेड़ दी, जिसमें अपनी बात लोगों तक पंहुचाने के लिए गीतों और नारों का सहारा लिया गया।
"हमारा पैसा, हमारा हिसाब" और "हम जानेंगे, हम जिएंगे" जैसे नारों ने जीने के मौलिक हक़ और सूचना के अधिकार के बीच के जोड़ को और मज़बूत किया। आरटीआई को चीज़ों को बदलने वाले अधिकार के रूप में देखा गया।
अमित राय आगे कहते हैं कि आरटीआई को लागू करने से अधिकारों से जुड़े दूसरे कानूनों की मांग भी की जाने लगी। इससे लोगों के अंदर ही पारदर्शिता और उत्तरदायित्व भी बढ़ा। सार्वजनिक ऑडिट यानी जन सुनवाई से उपजा सामाजिक ऑ़डिट लोकतांत्रिक शासन का हिस्सा बनता जा रहा है।

सोशल ऑडिट

आरटीआई का इस्तेमाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पत्नी यशोदा बेन ने भी किया। नियंत्रक और महालेखाकार (सीएजी) ने इस साल ऐलान कर दिया कि सोशल ऑडिट औपचारिक ऑडिट का हिस्सा बनेगा। दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी सोशल ऑडिट फैल रहा है। आरटीआई "कमज़ोरों का सबसे ताक़तवर हथियार" बन गया है। इसने विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका पर सवाल उठाने के लिए हर जगह नागरिकों को ताक़त दी है। इसने सरकारों के हर तरह के बुरे कामों को उजागर किया है। इससे बुनियादी सेवाओं, ज़मीन, खनन और 2-जी और कोयला ब्लॉक बांटने जैसे घोटालों को सबके सामने लाने में मदद मिली है। पर अधिकार आधारित कानूनों पर हो रहे हमले को देखते हुए आने वाला समय कठिन है। इस कानून को बदनाम करने के लिए ब्लैकमेल करने वालों और कुछ सनकी लोगों के कामों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है। यूपीए और एनडीए, दोनों सरकारों ने ही आरटीआई को कमज़ोर करने की कोशिशें की। उन्होंने संशोधन लाने में देर कर या सूचना आयुक्त की नियुक्ति में मनमर्ज़ी कर इसे कमज़ोर किया है।नरेंद्र मोदी सरकार ने मुख्य सूचना आयुक्त के पद को आठ महीने तक खाली छोड़ दिया। सूचना आयुक्त के आदेशों की अनदेखी कर सभी राजनीतिक दलों ने आरटीआई की अवहेलना की है।

अदालत की हिचक

अमित राय कहते हैं कि अदालत की तरह ही आयोगों में भी कई साल तक देर होती है। अदालत ने भी यह दिखाया है कि वे अपने बारे में जानकारी देने में कितना हिचकते हैं। जजों की जायदाद का ऐलान करने के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही अपील कर दी है। उम्मीद है कि आरटीआई को लागू करने में आ रही तमाम दिक्कतों के बावजूद पारदर्शिता का युग बना रहेगा। अब लड़ाई शिकायत दूर करने से जुड़े कानून, व्हिसलब्लोअर कानून और लोकपाल कानून को पारित करने और उन्हें लागू करने को लेकर है। आरटीआई के तहत खुद डिसक्लोजर करने और विधेयक पेश करने से पहले इसकी प्रक्रिया में लोगों को शामिल करने का मामला अभी भी तय नहीं हुआ है। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता  है कि लोग कितने जागरुक और मुखर हैं। बीते दस साल में यह साफ हो गया है कि भारतीय नागरिक चौंकन्ने, सक्रिय और बोलने वाले हैं. उनकी आवाज को अब दबाया नही जा सकता।

अमित राय, आरटीआई एक्टिविस्ट एवं युवा समाजसेवी

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