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Buxar Top News: पूरे वर्ष में सिर्फ दो माह ही विद्यालय में रहते हैं शिक्षक, 'आउट-ऑफ-स्कूल’ बच्चों की संख्या बढ़ी ...

बक्सर टॉप न्यूज़, बक्सर: आज बिहार में शिक्षकों की अनुपस्थिति एक जटिल समस्या बन गई है, जो अनुमानित रूप से 26 प्रतिशत तक है। इस अनुपस्थिति के दो महत्वपूर्ण कारण हैं, पहला, शिक्षकों के कार्य तथा उनके प्रदर्शन की निगरानी का अभाव होना, और दूसरा, विभिन्न सरकारी कार्यों में शिक्षकों का भागीदार बनाना। यूनीसेफ के अनुमान के मुताबिक अगर सरकारी काम-काज और छुट्टियों को अलग कर दिया जाए, तो एक शिक्षक वर्ष में कक्षा के अंदर केवल दो महीने ही व्यतीत करते हैं। ऐसे में बच्चों की शिक्षा का हश्र क्या होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है।


उक्त बातें आरटीआई एक्टिविस्ट अमित राय ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा। इन्होंने कहा है कि बिहार में शिक्षा की बिगड़ती सूरत का अंदाजा ‘आउट-ऑफ-स्कूल’ बच्चों की संख्या और ‘ड्रॉप-आउट’ दर से भी लगाया जा सकता है। सामाजिक एवं ग्रामीण अनुसंधान, बिहार के अनुसार बिहार में ‘आउट-ऑफ-स्कूल’ बच्चों की संख्या पूरे देश में सबसे अधिक है, यहां तक कि इसने सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश को भी इस मामले में पीछे छोड़ दिया है। देश के अनुमानित एक करोड़ 35 लाख ‘आउट-ऑफ-स्कूल’ बच्चों में अकेले बिहार के 30 लाख से ज़्यादा बच्चे हैं यानि उनका हिस्सा लगभग एक चैथाई (23.4 प्रतिशत) है। इसके अलावा जहां ‘ड्रॉप-आउट’ का राष्ट्रीय औसत 50 प्रतिशत है वहीं बिहार में यह दर 65 प्रतिशत से अधिक है। इसका मतलब ये है कि कक्षा एक में प्रवेश करने वाले हर 100 में से केवल 13 बच्चे ही 8वीं तक पहुंच पाते हैं। इतनी अधिक संख्या में ड्रॉप-आउट होने के कई कारण हैं, जैसे, स्कूल में शिक्षण कार्य का ठीक नहीं होना, बच्चों को पढ़ाई गई विषय-वस्तु का समझ में नहीं आना, बच्चों को शारीरिक दंड मिलना, बालिकाओं के लिए स्कूल मे अलग से टाॅयलेट की व्यवस्था का नहीं होना, अभिभावकों का पढ़ाई के प्रति उदासीन होना, ग़रीबी, बाल-मजदूरी, इत्यादि।
‘आउट-ऑफ-स्कूल’ बच्चों में 40 प्रतिशत पिछड़ी जाती के हैं, जबकि अनुसूचित जाति के 35 और मुसलमानों के 20 प्रतिशत बच्चे स्कूल से बाहर हैं। ग़रीब परिवार के बच्चे दाख़िला तो ले लेते हैं लेकिन जल्द ही स्कूल से बाहर हो जाते हैं। उनमें ड्रॉप-आउट रेट बहुत अधिक है।


अमित राय ने कहा कि आज के दौर में नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) राष्ट्र निर्माण में अहम रोल अदा कर रहा है। बिहार के संदर्भ में इसकी अहमियत और भी अधिक बढ़ जाती है। लेकिन दिक्कत यह है कि प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में यहां इनकी भागीदारी या तो कम है या फिर समस्याग्रस्त है। बहुत कम ‘गै़र-सरकारी संस्था’ (एनजीओ) हैं जो शिक्षा के क्षेत्र में प्रभावशाली ढंग से काम कर रहे हैं। शिक्षा से जुड़ी तमाम प्रक्रियाओं का केंद्र-बिंदु होते हुए शिक्षकगण बच्चों के भविष्य निर्माण में निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। अगर एक शिक्षक उत्साह के साथ बच्चों को सीखने-सिखाने में रूचि लेता है और समाज तथा अभिभावकों के साथ मिल कर उनकी उन्नति के लिए प्रयास करता है तो वह अकेले अपने दम पर बुनियादी सुविधाओं के नहीं होते हुए भी बड़ा परिवर्तन ला सकता है। परन्तु, शिक्षकों को अपने काम में प्रभावी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि उनकी क्षमता निर्माण का काम निरंतर चलता रहे। बिहार में बेहतर शिक्षक उम्दा प्रशिक्षण के अनुभव से महरूम हैं। अतः शिक्षण-कौशल के आधुनिक तौर-तरीकों से अंजान यहां के शिक्षक बच्चों को रटे-रटाए पुराने तरीकों से ही पढ़ाते हैं। आज दुनिया भर में शिक्षा के क्षेत्र में बड़े बदलाव देखे जा रहे हैं। रटने और विषय-वस्तु को घोंट कर पीने के बजाय उसे समझने की जरूरत पर जोर दिया जा रहा है। बच्चों को सोचने, समझने, तर्क और वितर्क करने, विश्लेषण करने, आदि जैसे कौशलों से संवारने की जरूरत है। इस ओर बदलाव के लिए न केवल प्रशिक्षण कार्य को ठीक करना पड़ेगा बल्कि शिक्षकों के चयन प्रक्रिया में भी उचित बदलाव लाना होगा। यह सुनिश्चित करना होगा के चयन प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी हो, ताकि अच्छी प्रतिभा को शिक्षण कार्य से जोड़ा जा सके।
हाल ही में पुराने शिक्षकों के सेवा-निवृत्त होने से पैदा रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए बिहार में व्यापक स्तर पर बहाली हुई। 12वीं कक्षा के बोर्ड एग्जाम में लाए गए अंकों को चयन का आधार बनाया गया। अर्थात, आवेदकों को किसी भी प्रकार की प्रतियोगिता परीक्षा पास करने की जरूरत नहीं थी। साथ ही, चयन प्रक्रिया की अहम बागडोर पंचायत के हाथों सोंपी गई, जिनकी पहचान पहले ही काम से कम और भ्रष्टाचार से ज़्यादा होने लगी थी। उन्हें ये जिम्मेदारी तो दी गई, लेकिन इस कार्यक्रम को सुचारू रूप से अंजाम देने तथा प्रत्याशियों की प्रतिभा का आंकलन करने के लिए किसी भी प्रकार का प्रशिक्षण नहीं दिया गया। सारा खेल पैसों पर सिमट कर आ गया, और यही इस चयन का मुख्य आधार बन गया। इस प्रक्रिया पर कई तरह के सवाल खड़े हुए।



आरटीआई एक्टिविस्ट अमित राय ने विज्ञप्ति में आगे कहा है कि नीतीश सरकार से कितनी बड़ी भूल हो गई थी, यह सच्चाई लोगों के सामने जल्द ही आ गई है। बी.बी.सी. हिंदी ने जब इसपर सर्वेक्षण किया तो उसे चैंकाने वाले तथ्य हाथ लगे। बड़ी संख्या में ऐसे शिक्षक मिले जो योग्यता और कौशल के नाम पर शून्य थे। बहुत से ‘शिक्षक’ अपना नाम तक नहीं लिख सकते थे। एक स्थानीय न्यूज़ चैनल ने भी राज्य के कुछ स्कूलों में नए चयनित शिक्षकों की पड़ताल की तो मालूम हुआ कि बच्चों को ऐसे शिक्षक पढ़ा रहे हैं, जिन्हें बिहार और भारत की राजधानी का कोई अता-पता नहीं है। वे यह नहीं बता सकते थे कि साल में कितने दिन होते हैं और भारत के प्रधान मंत्री का क्या नाम है।

आज बिहार में शिक्षा की सूरत बड़ी ही बदहाल है। शिक्षा के नाम पर बच्चों को अधकचरे ज्ञान से सींचा जा रहा है। इस से उपज कैसी होगी, समझना कठिन नहीं है। लेकिन यह कहना नाजायज नही होगा की बिहार में छात्रों का भविष्य अंधकारमय दिख रहा है।


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