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Buxar Top News: आखिर क्यों? करोड़ों भारतीय 31 जनवरी को मनाते हैं आजादी का जश्न ..



दरअसल, 1947 को भारत तो आजाद हो गया. लेकिन इसकी 190 जनजातियों के करोड़ों नागरिकों को पांच साल बाद 31 अगस्त, 1952 को असली आजादी मिली. इसे ये लोग इस तारीख को विमुक्ति दिवस के तौर पर भी मनाते हैं. अंग्रेजों ने इन करोड़ों लोगों को एक खास अधिनियम के तहत 180 साल तक उनके घरों में ही कैद कर दिया था

- विमुक्ति दिवस के रूप में मनाया जाता है यह दिवस.

- 31 अगस्त 1952 को अपराधियों की श्रेणी से बाहर आए थे अपराधी.

बक्सर टॉप न्यूज़, बक्सर: भारत का स्वतंत्रता दिवस कब है? इसका आसान सा जवाब है 15 अगस्त, जो 15 दिन पहले बीत चुका है। अगर हम आपसे कहें कि करोड़ों भारतीयों के लिए आज (31 अगस्त) स्वतंत्रता दिवस है। आपको विश्वास नहीं हो रहा होगा. लेकिन ये सच है।




दरअसल, 1947 को भारत तो आजाद हो गया. लेकिन इसकी 190 जनजातियों के करोड़ों नागरिकों को पांच साल बाद 31 अगस्त, 1952 को असली आजादी मिली. इसे ये लोग इस तारीख को विमुक्ति दिवस के तौर पर भी मनाते हैं. अंग्रेजों ने इन करोड़ों लोगों को एक खास अधिनियम के तहत 180 साल तक उनके घरों में ही कैद कर दिया था. अब ये आजादी से घूम सकते हैं. लेकिन अब भी अंग्रेजों द्वारा इन पर लगाया गया दाग. समाज में इन्हें वो स्थान और सम्मान नहीं देता जो इनका हक है और आजाद भारत का नागरिक होने के नाते मिलना चाहिए.





क्यों विमुक्ति दिवस मनाती हैं 190 जनजातियां:

देश की 190 जनजातियां 31 अगस्त को क्यों विमुक्ति दिवस या दूसरा स्वतंत्रता दिवस मनाती हैं. इसका जवाब जानने के लिए आपको गुलाम भारत के इतिहास में जाना होगा। जब अंग्रेज भारत पर शासन कर रहे थे. वर्ष 1871 में अंग्रेजों ने 'आपराधिक जनजाति अधिनियम' लागू करके देश की कई जनजातियों को जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया था.






1857 के विद्रोह से घबराकर अंग्रेजों ने उठाया था कदम.
इसकी एक बड़ी वजह अंग्रेजों के खिलाफ हुआ 1857 का विद्रोह भी माना जाता है. जानकारों का मानना है कि 1857 के विद्रोह में बहुत सी जनजातियों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. विद्रोह से घबराए अंग्रेजों ने भारतीयों पर नज़र रखने और उन्हें नियंत्रित करने के लिए दर्जनों कानून बनाए थे. हालांकि इन कानूनों से उन जनजातियों पर नियंत्रण पाना बहुत मुश्किल था. जिनका कोई स्थायी ठिकाना नहीं था.




ये घुमंतु जनजातियां थीं. जो एक शहर से दूसरे शहर में ठिकाना बदलती रहती थीं. ऐसी जनजातियों को नियंत्रित करने के लिए अंग्रेजों ने उन्हें सूचीबद्ध कर 1871 में उन पर 'आपराधिक जनजाति अधिनियम' लागू कर दिया. इस अधिनियम के तहत इन जनजातियों के सभी सदस्यों को अपराधी घोषित कर दिया गया.





बच्चा पैदा होते ही अपराधी मान लिया जाता था:

‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’ में शामिल जनजातियों के यहां बच्चा पैदा होते ही उस पर अपराधी का ठप्पा लग जाता था.करीब 180 सालों तक देश ने इन जनजातियों को कानूनी तौर पर जन्मजात अपराधी माना. इसके चलते धीरे-धीरे हमारे भारतीय समाज ने भी इन जनजातियों को अपराधी मान लिया.


बस्ती बनाकर कैद कर दिया गया था इन्हें:

अंग्रेजों के बनाए इस अधिनियम में समय-समय पर संशोधन हुए. इन संशोधनों के तहत अधिनियम में सुधार की जगह धीरे-धीरे 190 जनजातियों को इसके दायरे में लाकर अपराधी घोषित कर दिया गया. इसके बाद पुलिस में भर्ती होने वाले जवानों को इनके बारे में पढ़ाया जाने लगा. प्रशिक्षण के दौरान उन्हें बताया जाता था कि ये जनजातियां पारंपरिक तौर से अपराध करती आई हैं.



इसका नतीजा यह हुआ कि इन जनजातियों के लोगों को हर जगह अपराधियों के तौर पर देखा जाने लगा. साथ ही पुलिस को उनका शोषण करने करने के लिए अपार शक्तियां दे दी गईं. देशभर में लगभग 50 ऐसी बस्तियां भी बनाई गईं जिनमें इन जनजातियों को जेल की तरह कैद कर दिया गया. इन बस्तियों की चारदीवारी के बाहर हर वक्त पुलिस का पहरा लगता था. बस्ती के बच्चों से लेकर हर सदस्य को बाहर आते-जाते वक्त पुलिस को अनिवार्य रूप से सूचना देनी होती थी या उपस्थिति दर्ज करानी पड़ती थी.


आजादी के पांच साल बाद खत्म हुआ अधिनियम:

15 अगस्त 1947 को भारत अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हो गया. बावजूद 1871 में अपराधी घोषित हुईं जनजातियों की स्थिति नहीं सुधरी देश की आजादी के पांच साल बाद 31 अगस्त 1952 को इन जनजातियों को अंग्रेजों द्वारा बनाए गए ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’ से आजादी (विमुक्ति) मिली. इसीलिए इन जनजाति के लोगों ने 31 अगस्त को 'विमुक्ति दिवस' के रूप में मनाना शुरू कर दिया और इसे दूसरे स्वतंत्रता दिवस के तौर पर देखा जाने लगा.

आजाद भारत में भी इन जनजातियों के प्रति सोच नहीं बदली:

देश आजाद होने और अधिनियम खत्म होने के बावजूद आज भी हमारा समाज इन जनजातियों को अपराधी मानता है. यही वजह है कि वर्ष 2003 में मध्य प्रदेश के घाट अमरावती गांव में पारधियों के दस घर फूंके गए दिए गए थे. वर्ष 2007 में जिला वैशाली बिहार में नट जनजाति के दस लोगों को भीड़ ने चोर होने के संदेह में पीट-पीट कर मार डाला था. सितंबर 2007 में ही बैतूल जिला मध्य प्रदेश के चौथिया गांव में पारधियों के 350 परिवारों के घर जला दिए गए थे. इस घटना के बाद चौथिया गांव के जिला पंचायत सदस्य ने बयान दिया था कि 'कुछ भी करना पड़े. किसी भी स्तर तक जाना पड़े, पर इन अपरधियों को यहां बसने नहीं देना चाहिए. दरअसल उन्होंने ये बयान इस जनजाति को अपराधी मानते हुए दिया था.

आज भी पुलिस इन जनजातियों को अपराधी मानती है.
ये महज कुछ बड़ी घटनाएं ही हैं. इन जनजातियों पर होने वाले अत्याचार की दर्जनों घटनाएं हर साल पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज होती हैं. बहुत सी घटनाओं में तो शिकायत ही नहीं की जाती है या पुलिस रिपोर्ट दर्ज नहीं करती है. घुमंतू जनजातियों के साथ आज भी समाज ही नहीं बल्कि पुलिस प्रशासन और व्यवस्था द्वारा भी ऐसा ही सौतेला व्यवहार होता है. आज भी पुलिस इन जनजातियों को जन्मजात अपराधी मानती है. लिहाजा इन्हें किसी भी मामले में गिरफ्तार कर लिया जाता है.

सरकारी नौकरी पर भी बावरिया के बेटे को नहीं मिला एजुकेशन लोन:

पुलिस उत्पीड़न के अलावा भी इन लोगों को कई मोर्चों पर अपनी जनजातीय पहचान का नुकसान भुगतना पड़ता है. गुड़गांव जिले के नरहेड़ा गांव निवासी छन्नूराम बावरिया जन स्वास्थ्य विभाग में सरकारी नौकरी करते हैं. कई साल की सरकारी नौकरी के बाद उन्होंने जब अपने बेटे की इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए बैंक से एजुकेशन लोन मांगा तो उन्हें मना कर दिया गया. उन्होंने अपने घर के पेपर तक गिरवी रखने की बात आवेदन पत्र में लिखी बावजूद उन्हें लोन नहीं दिया गया।.छन्नूराम के अनुसार बैंक ने उन्हें केवल इसलिए लोन नहीं दिया क्योंकि वह उस बावरिया समाज से हैं. जिस पर अपराधी होने का ठप्पा लगा है.

अब इन्हें आदतन अपराधी मान लिया गया है
1952 में अंग्रेजों द्वारा बनाया गया ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’ तो खत्म कर दिया गया. लेकिन इससे पहले ही 1950 के दशक में ‘हैबिचुअल ऑफेंडर्स एक्ट’ (आदतन अपराधी अधिनियम) बना दिया गया. ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’ खत्म होने के बाद धीरे-धीरे इन जनजातियों को ‘हैबिचुअल ऑफेंडर्स एक्ट’ में शामिल कर दिया गया. संयुक्त राष्ट्र और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इस कानून को रद्द करने के लिए कई बार भारत सरकार को कह चुके हैं.लेकिन इस दिशा में अभी तक कुछ नहीं किया गया. 


शिकारी जनजाति बावरिया अब खुद हो रही शिकार:

अक्सर बड़ी घटनाओं और निर्मम हत्या में बावरिया गिरोह के शामिल होने की आशंका जताई जाती हैं. ऐसी खबरें मीडिया और समाज में जबरदस्त चर्चा बटोरती हैं. आम धारणा है कि बावरिया गिरोह बहुद निर्दयी होता है. इनकी पूरी जनजाति को गिरोह मान लिया जाता है. माना जाता है कि ये लोग अपराध करने से पहले भगवान की पूजा करते हैं.ये लोग महिलाओं और बच्चों के साथ वारदात करते हैं.

जनजातियों के उत्थान को आयोग तो बना पर काम नहीं हुआ:

वर्ष 2005 में तत्कालीन सरकार ने ‘विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजातियों’ के लिए एक राष्ट्रीय आयोग का गठन किया था. आयोग के अध्यक्ष बालकृष्ण रेनके ने 2008 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी. रिपोर्ट में इन जनजातियों के इतिहास से लेकर इनकी वर्तमान चुनौतियों और उनसे निपटने के तरीकों का जिक्र किया गया था. लगभग 150 पन्नों की इस रिपोर्ट में बावरिया जनजाति के बारे में बताया गया है कि वह कई पीढ़ियों से जंगली जानवरों के शिकार का काम किया करती थी. ‘फॉरेस्ट एक्ट’ और ‘वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट’ जैसे कानूनों ने बावरिया लोगों का जंगल से रिश्ता खत्म कर दिया. ऐसे कानून बनाते समय जंगल पर ही आश्रित जनजातियों के पुनर्वास की कोई व्यवस्था नहीं की गई.

प्रमुख जनजातियां - हबूडा, भांतु, धतुरिया, पारधी, नट, बावरिया, कंजर, सांसी, छारा, मदारी आदि.

भारत में जनजातीय स्थिति और विकासात्मक पहल
- वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश की कुल आबादी में आदिवासियों की संख्या 8.61% है जो लगभग 104.28 मिलियन् है और देश के क्षेत्रफल का लगभग 15% भाग पर स्थापित है.
- आदिवासी जनसंख्या की 52 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे है और कारण क्या है कि 54 प्रतिशत आदिवासियों के पास यातायात एवं दूर संचार के रूप में आर्थिक संपत्तियाँ उपयोग के लिए नहीं हैं.
- देश में जनजातियों की कुल आबादी करीब 14 करोड़ है.

यहां बसाई गईं थीं बस्तियांः 


कानपुर में 159 एकड़ में अंग्रेजों ने 1992 में क्रिमिनल ट्राइब सेटलमंट प्लान के तहत सीटीएस कॉलोनी बसाई थी. इसके अलावा मुरादाबाद, गोरखपुर और पालिया आदि शहरों में भी इन जनजातियों को कैद करने के लिए अंग्रेजों द्वारा बस्तियां बसाई गईं थीं. ये कॉलोनियां इन जनजातियों के लिए एक खुली जेल की तरह थीं.



















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